Tuesday, November 8, 2011

अन्ना टीम , कुछ चमकते चेहरों पर आरोप और बिखराव के कारण

अन्ना टीम आज सवालों के घेरे में है. हर रोज अन्ना और उनकी टीम का कोई ना कोई सदस्य या तो कुछ नया खुलासा कर देता है या फिर कोइ चिट्ठी भेज देता है और टीम पर सवाल ही सवाल उठ खड़े होते हैं. पहले कुमार विश्वास, फिर राजेंद्र सिंह और अब राजू पेरुलकर. सबसे बड़ा सवाल है के अन्ना की टीम पर जो सवाल उठाये जा रहे हैं क्या वो सही हैं ?क्या अन्ना रालेगन सिद्धि के नायक भर हो सकते हैं देश के नहीं ? क्या अन्ना वास्तव में कुछ चतुर लोंगों के बीच फंस गए हैं जैसा दिग्गी राजा कहते हैं ? या फिर अन्ना टीम सही रस्ते पर हैं? बहुत से सवाल आज अन्ना और उनकी टीम दोनों पर लग रहे हैं और वो लोग खामोश हैं जो अन्ना के साथ खड़े होकर कह रहे थे : 'अन्ना नहीं ये अंधी है देश का नया गाँधी है.'
अन्ना के पहले और दूसरे दोनों चरण में किये गये आन्दोलन में जो टीम लोंगों के सामने आरंभ में उभर कर आयी थी उसमें अन्ना के साथ कुछ चेहरे प्रमुख रूप से नज़र आये थे . उसमें प्रमुख रूप से केज़रिवाल, किरण बेदी , कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण और मनीष सिसोदिया के चेहरे थे. लेकिन उस दौर में जो सबसे बड़ा नाम अन्ना के बाद दिखाई दे रहा था वो था स्वामी अग्निवेश का. अग्निवेश भारत में लम्बे समय से बाल श्रम को लेकर सक्रिय रहे हैं. और उनको और उनके काम को लोगों का खासा समर्थन भी है. इस तरग टीम में सभी कमोबेश अपने अपने पेशे के जाने पहचाने चेहरे थे. इसलिए इस आन्दोलन पर जनता के लिये भरोसा करने का कारण भी था और उस दौर में कुछ संगठ्नो और लोगों ने आँख मूँद् कर टीम के सभी चेहरों पर ना केवल भरोसा किया बल्कि युवा वर्ग एक मार्ग दर्शक के रूप में भी देख रहा था. किंतु इस अन्दोलन का दूसरा चरण एक तरह से बेहद प्रभावी और अपार जन समर्थन लिये हुए था जिसपर सरकार की पैनी नज़र थी.

दरअसल अन्ना का दूसरा अनशन ऐसी स्थितियों में देश के सामने आया जब ए. राजा, कनिमोई सहित देश के २० से अधिक जाने पहचाने नाम या तो जेल की हवा खा रहे थे या फिर जेल जाने की तैयारी कर रहे थे. देश के सारे लोग खामोश जरूर थे किन्तु कहीं ना कहीं इन स्थितियों से उबल रहे थे. ठीक इसी समय अन्ना, अरविन्द केज़रिवाल और किरण बेदी लोंगों के लिए आशा की किरण की तरह सामने आये. किरण बेदी का पूरा व्यक्तित्व पिछले कई सालों से लोंगों का जाना पहचाना था. अरविन्द केज़री वाल भी पिचले ५ सालों से देश के अलग अलग हिस्सों में घूम कर जो कवायद कर रहे थे उससे वो भी लोंगों के लिए नए नहीं थे और अन्ना के चेहरे से भी लोग एक अरसे से वाकिफ थे और जो कम वफिफ थे वो पिछले अनशन के बाद काफी कुछ जान गए थे. अन्ना मे जब अपना पहला अनशन राजघाट पर किया तो उस अनशन ने एक उम्मीद जगा दी थी और यह सन्देश छोड़ दिया था के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी कमर कस कर लड़ा जा सकता है और लोग उत्साहित भी हुए और जरूरत से ज्यदा आशांवित भी. लोग अधिक आशान्वित इस बात से भी थे कि इस टीम का पहला अनशन ना केवल सफल रहा था बल्कि अपने चरित्र में बहुत शुद्ध और सात्विक नज़र आया था. यही वज़ह थी के इस दूसरे अनशन में लोग जुड़ते चले गए. किंतु आज टीम के कई सदस्यों पर ना केवल भ्रष्ट होने के आरोप लग रहे हैं गठनात्मक ढांचा भी कमजोर हुआ है. जहां एक तरफ किरण पर हवाई ज़हाज़ के किराये को लेकर सवाल खडे हो रहे हैं वहीं, अरविन्द केज़रिवाल पर सरकार के साथ करार तोड़ने तथा उसकी रकम ना चुकाने के आरोप ना केवल लगे हैं बल्कि यह सही भी सबित हुए हैं. सबसे गौर करने वाली बात है के अब अन्ना के ट्रस्ट पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. इन आरोपों के बाद जनता को ऐसा लग रह था कि सरकार अन्ना टीम को अन्दोलन की सज़ा दे रही है और सारे आरोप टीम को परेशान करने के लिये लगाये जा रहे हैं. बहुत हद तक ये बात अपनी जगह सही भी हो सकती है क्योंकि सरकारें इस तरग के हथकंडे अपनाती है अन्दोलनों को ठढा करने के लिये और यही सत्ता क चरित्र भी है. किंतु सवाल यह है कि क्या अन्ना टीम के लोगों को यह पता नहीं था कि जब वह सरकार पर भ्रष्टाचार खत्म करने के लिये दबाव बनायेंगे तो सरकार चुप नहीं बैठेगी. आश्चर्यजनक है के क्या किरन बेदी भी इस सरकारी रवैये से वकिफ नहीं रही होंगी या हैं जबकि वह लम्बे समय तक सरकार का हिस्सा रही हैं. अरविन्द् केजरी वाल को भी इतना ज्ञान तो होगा ही कि करार तोडने और अनुबन्ध से सम्बन्धित राशि न चुकाना सरकारी नियमों का उलंघन ही है. तो क्या अन्ना टीम के सिपाही भी बेदाग नहीं हैं?

इसलिये यह गम्भीरता से सोचने वाला सवाल है कि क्या वास्तव में अन्ना टीम पर लग रहे सारे आरोप बेबुनियाद हैं या उनमें कोई सचाई भी है ? दूसरा बहुत महत्वपूर्ण सवाल ये कि क्या ये आन्दोलन आने वाले दिनों में जनता की आशा पर खरा उतरेगा या फिर बहुत से आन्दोलनों की तरह निरर्थक रह जायेगा ? और यह भी की क्या अब भी जनता अन्ना के पीछे खड़ी रहेगी मजबूत दीवार की तरह या फिर दर्शक बनना पसन्द करेगी?

उपरोक्त सवाल बहुत महत्वपूर्ण है किंतु सवालों का जवाब खोज़ने के क्रम में सबसे पहले अन्ना के चमकते सिपाहियों पर नज़र डालनी बहुत ज़रूरी है. इसलिये सबसे पहले बात करते हैं
टीम की चमकते चेहरे किरन बेदी की:

किरण बेदी पिछले कई दशकों से देश का एक जाना पहचाना चेहरा हैं. उनका इतिहास इतना आकर्षक रहा है कि देश की जनता उनके व्यक्तित्व को भ्रष्टाचार मुक्त और प्रभावी मानती रही है. ऐसा रहा भी होगा और इस बात पर आज तक विवाद कम ही रहा है किन्तु हवाई जहाज़ किराया प्रकरण ने किरण बेदी की तार्किक शक्ति, , सरकारी नियम कानूनों की सही जानकारी तथा उसके पालन के विवेक पर निश्चय ही एक बहुत बड़ा प्रह्न्चिंह लगाया है . उनके इस किराया प्रकरण ने किरण बेदी के व्यक्तित्व और उनके पुलिसिया अंदाज को भी उजागर ही किया है. जो उनकी दबंगई और चढ़ कर रहने वाले व्यक्तित्व का परिचायक है. इस किराया प्रकरण में सबसे ध्यान देने वाली बात ये है कि लम्बे समय तक सरकारी मुलाजिम रही किरण को क्या सरकार के साथ काम् करने के तरीकों, उसके साथ के अनुबंध और उन अनुबंधों की वैधानिकता की जानकारी नहीं थी?. निश्चय हे किरण जी को पता होगा के वो जिस संस्था के साथ काम कर रही हैं और जो किराया उनसे वसूल रही हैं और उसके लिए जो तरीका अपना रही हैं वो कानूनन गलत है. यह माना जाना चाहिए के इस प्रकरण को लेकर देश के सामने वो जो तर्क प्रस्तुत कर रही हैं वो भी भी इस लिहाज़ से अतार्किक ही है. ये अलग बात है के फंडिंग एजेंसियों को तौर तरीके इस सम्बन्ध में प्रश्न उठाने लायक हैं किन्तु फंडिंग एजेंसियों के तौर तरीकों पर. यहां किरन जो तर्क दे रही हैं वो सरकारी नियम कयदों का उलंघन कर अपने समर्थन में तर्क दे रही हैं.
दूसरी बात कि यदि किरण बेदी को फंडिंग एजेंसियों द्वारा दी गयी रशि को बचाने के तरीके इज़ाद करने थे तो उन्हें इस सम्बन्ध में कोइ क़दम उठान था तो यह सरकार के संज्ञान में और जनता के संज्ञान में होना अति आवश्यक था जो किरण बेदी ने नहीं किया या फिर इसकी जरूरत नहीं समझ. और वो चुप चाप सालों गलत तरीके से किराया लेती रहीं. उनका यह तरीका दो बातों की तरफ इशारा करता है पहला कि उनमें दूर दृष्टी की की कमी है या फिर उनके काम करने का तरीका यही रहा है क्योंकि देश के सामने. जो तर्क वो दे रही हैं उस तर्क को सुना जा सकता था तब जब वो जनता और सरकार दोनों को सूचित कर ये कार्य करतीं. यानि एक तरह की जनसूचना उन्हें अवश्य जरी करनी चाहिए थी किंतु उन्होनें ऐसा नहीं किया जो उनके व्यक्तित्व पर और आने वले दिनो में उनके नेतृत्व पर सवाल खडे करने का काम करेगा और करता है. क्योंकि वो जिस पारदर्शिता और इमानदारी की दुहई देती रही हैं उनका यह चरित्र उस इमान्दारी के खांचे में फिट नहीं बैठता.
अब बात करते हैं अन्ना के दूसरे सिपाही अरविन्द केज़रिवाल की. हिसार में जन्मे अरविन्द पहले IIT के छात्र रहे फिर इंडियन रेवेन्यु सर्विसेस में असिस्टेंट कमिश्नर किन्तु इनकी पहचान तब हुई जब इन्हें २००६ में मग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया. केजरीवाल ने २००६ में ही इंडियन रेवेन्यु सर्विसेस से त्याग पत्र दे दिया और सूचना के अधिकार को हथियार बना एक बड़ा चेहरा बनने लगे. पर यहाँ सवाल ये है के जिस सूचना के अधिकार का डंका केज़रिवल ने ५ साल तक पीटा वो उसकी ही मूल बात कैसे भूल गए? क्या सरकार से किये गये अनुबन्ध बेमनी होते हैं? या फिर यह केज़रीवाल के लिये बेमानी थे? आखिर क्या वज़ह थी कि उन्होने सरकार के साथ अनुबध तोडने के एवज़ में ज़मा होने वले ९ लाख रुपये सरकार को नहीं लौटाए ? क्या सरकार के साथ काम करने के शुरुआत में उन्होंने जो अनुबंध किया होगा उसमें यह क्लोज़् नही था के अनुबंध एक समय सीमा से पहले तोड़ने पर उन्हें हर्जाना देना होगा ? या फिर केज़रिवाल ने पढ़ा नहीं ? या फिर उनको लगा कि भारत सरकार के साथ इसको लेकर कोई पंगा कभी नहीं होगा ? यहाँ एक प्रश्न और उठता है कि आखिर सरकार के कान उमेठने पर क्यों कजरी वाल ने ९ लाख भरे ? यह निश्चित रूप यह केज़रिवाल की व्यक्तिगत इमानदारी पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है जो आगे उनके साथ खड़े होने वाले लोगों के बीच खड़ा असंतोष और शंका का कारण न केवल बन सकता है बल्कि बन चुका है. यह वास्तव में सोचनेवाला विषय है के लोंगों के बीच आने के लिए केज़रिवाल ने जिस सूचना के अधिकार को प्रस्थान बिंदु बनाया वह उसी के जाल में कैसे उलझ गये.
उनके तीसरे सिपाही मनीष सिसोदिया बेहद सम्भल कर् खेल खेलने मे विश्वास रखते हैं जो कभी जी न्यूज़ के प्रोडूसर हुआ करते थे और अन्ना के आन्दोलन को मीडिया का अपार और् सकारात्मक समर्थन मिलने के पीछे मनीष का बड़ा रोल था हकिंतु मनीष् अभी तक विवाद का हिस्सा नहीं बने हैं.
पर अन्ना के सबसे बडे कद के सिपही स्वमि अग्निवेश का चरित्र भी इस अन्दोलन के सन्दर्भ में बहुत विचारणीय रहा है. अग्निवेश भारत में अन्ना की तरह ही एक जाना पहचना नाम रहे हैं. बालश्रम पर लम्बे समय से किया उनका काम हमेशा से लोगों के बीच चर्चा का विषय रहा है इस्लिये अन्ना के अन्दोलन के साथ उनका जुडना कहीं इस अन्दोलन को जमीन से जुडा होने का आभास देता था किंतु अग्निवेश की तत्कालीन CD ने लोगों को सदमे में डाल दिया क्योंकि जिस सरकार से लडाई के लिये करीब 1 लाख लोग 12 दिन राम लीला मैदान में डटॆ रहे CD ने एकबारगी जैसे अचम्भे में दाल दिया. इस तरह अन्ना टीम के कमोबेश सबसे महत्वपूर्ण दिखने वाले सभी चेहरे ना केवल जनता बल्कि खुद अपने ही साथियों के निशाने पर हैं.
यही से बात शुरु होती है अन्ना के अन्दोलन के बिखराव की और अन्ना टीम के बीच आपसी तल्मेल में खलल की. दरअसल अग्निवेश की तत्कालीन CD ने इस बात की गंध उसी समय छोड़ दी कि टोली में सब कुछ ठीक नही है किंतु कुमार विश्वास के पत्र ने जैसे इस बात को साबित कर दिया कि टीम दरअसल टीम ना होकर कुछ दबंग लोगों की महत्वाकांक्षा का अड्डा मात्र है.




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..........................डा. अलका सिंह

Friday, September 2, 2011

अरुंधती, अन्ना का आन्दोलन और पीछे की शक्तियां


(आज अरुंधती राय का एक इंटरव्यू पढ़ा. काफी रोचक लगा. हालाँकि पूरा इंटर व्यू पढ़कर अरुंधती के बारे मे भी कई सवाल पूछने को जी करता है. अरुंधती आखिर अन्ना का इतना विरोध कर क्यों रही हैं ? क्या उनका विरोध कहीं फिर से अपने आप को मीडिया और लोंगों के बीच स्थापित करना तो नहीं जिसे वो पिछले कुछ दिनों मे खो चुकी हैं.? या वो देश को आगाह कर रही हैं ? आखिर अरुंधती की मंशा क्या है ? चाहे जो भी हो अरुंधती ने जो कुछ भी अपने साक्षत्कार मे कहा है वो सोचने वाला विषय है. यह आलेख इसी को ध्यान मे रख कर लिखा गया है)
१२ दिनों तक अन्ना की भूख हड़ताल चली सारा देश उनके साथ था. मीडिया ने उनके आन्दोलन को देश का आन्दोलन कहा और अन्ना को नया गाँधी. कोलकता मे युवाओं ने नारे भी लगाये " अन्ना नहीं ये आंधी है देश का नया गाँधी है " यक़ीनन अन्ना देश मे एक नए विश्वास की तरह उभरे हैं और लोंगों ने उन्हें सर आँखों पर लिया है . उनकी टोपी और उनके शब्द एक नए हथियार की तरह सामने आये हैं . दूसरी ऑर इस आन्दोलन का कुछ लोंगों द्वारा पुरजोर विरोध भी किया गया. कहा गया कि यह आन्दोलन एक माध्यम वर्गीय और सवर्ण आन्दोलन है. इसे शहरी आन्दोलन भी करार दिया गया. कई लोंगों ने विशेषकर पढ़े लिखे पिछड़े और दलित वर्ग के पत्रकारों और चिंतकों ने इसे दलित, शूद्र और आदिवासी विरोधी बताया.. तमाम सोशल नेट्वोर्किंग साइट्स पर अन्ना विरोधियों और समर्थको की भरमार रही. पूरे आन्दोलन के दौरान इन साइट्स पर खूब गरमा गर्मी भी हुई. जैसे जैसे आन्दोलन बढ़ा कई लोंगों ने फेसबुक
पर ऐलान भी किया के अब वो अपने दोस्तों की नयी लिस्ट बनायेंगे. विचारधारा का ऐसा टकराव हुआ के कईयों ने कई दोस्तों को ब्लाक कर दिया. . कई तरह के तर्क और वितर्क हुए कई तरह के विचार पढ़ने को मिले. कई अपनी जगह सही थे तो कई बड़े - बड़े सवाल करते हुए भी थे. कई तर्क निरर्थक भी थे जो महज़ विरोध के लिए विरोध था या यूं कहें कि इस मनोभाव से विरोध था के विरोध करना बौद्धिक लोंगों की जामात मे खड़ा होना है क्योंकि वो भगवा के साये से दूर रहना चाहते थे. ऐसा कहा गया के अन्ना के आन्दोलन पर RSS के आशीर्वाद का भी साया है .

इन्हीं विरोधों के बीच देश की विख्यात एक्टिविस्ट अरुंधती राय का साक्षात्कार I B N 7 की सागरिका घोष ने लिया जिसमे अरुंधती राय ने न केवल जनलोकपाल बिल अपितु अन्ना के आन्दोलन और उसके पीछे की शक्तियों और उनकी मंशा पर गंभीर चिंता जताई. अरुंधती ने कहा: "अन्ना हजारे को भले ही जन साधारण के संत के रूप मे पेश किया गया हो किन्तु वो इस आन्दोलन को संचालित नहीं कर रहे थे मतलब इस आन्दोलन का दिमाग वो नहीं थे.". इसी साक्षात्कार मे आगे अरुंधती कहती है कि इस आन्दोलन को संचालित करने वाली शक्तिया अलग थी. मूलरूप से यह फोर्ड फाउन्देशन और वर्ल्ड बैंक से जुदा कार्यक्रम है जो अफ्रीकी देशों मे ऐसे ६०० आन्दोलन चला रहा है."

अचानक अरुंधती का परिदृश्य मे आना और अन्ना के आन्दोलन पर ढेरों सवाल खड़े करना और मीडिया के एक ग्रुप को अरुंधती को तव्वजो देना भी सोचने को मजबूर करता है. बहरहाल, यहाँ सवाल यह है के अरुंधती द्वारा अन्ना के आन्दोलन को प्रतिगामी कहना और उसपर सवाल खड़े करने के पीछे कारण क्या हो सकता है ? क्या ऐसे सवाल उठाने के पीछे कोई राजनीति है जो विरोध करने वालों की तरफ से हुई या फिर ये मीडिया का TRP का चक्कर है ? सोचने वाली बात ये भी है की अरुंधती की चिंता क्या सचमुच सही हैं? या बात कुछ और ही है ?

यहाँ सबसे पहले बात अरुंधती की करते हैं. सन १९६१ मे जन्मी अरुंधती राय पेशे से लेखिका हैं और अब तक उन्होंने नर्मदा बचाओ से लेकर नक्सल वाद तक तमाम मुद्दों पर काम किया है. किसी ने कभी उनके काम और उस काम के पीछे की मंशा या पीछे की शक्तियों पर सवाल नहीं उठाये थे. न ही ये जानने की कोशिश की थी के उनके काम को कौन फंड कर रहा था आज तक सभी ने उनकी बात को न केवल तवज्जो दी बल्कि कई बार भरपूर समर्थन भी किया. उनका पूरजोर विरोध तब हुआ जब नक्सल वादियों की समस्या को संवेदनशीलता से लोंगों के सामने रखते रखते वो कश्मीरी अलगाववाद के समर्थन मे उठ खड़ी हुईं तो लोग उनपर और देश के प्रति उनकी निष्ठां पर सवाल करने लगे और वो एक तरह से लोंगों की नज़र से उतर गयीं ऐसे मे जब अरुंधती अन्ना के आन्दोलन का विरोध करती है तो सीधा साधा सवाल उठता है के वो जिन आन्दोलनों के साथ जुडी रहीं उनकी पीछे की शक्तियां क्या अन्ना के आन्दोलन के पीछे की शक्तियों की विरोधी शक्तियां हैं? यदि नहीं तो फिर अन्ना और उनके सहयोगियों और उनके फंडरों से कैसी शिकयत ? और अगर ये शिकायत है तो ये समझा जाये के ये अरुंधती का विरोध नहीं बल्कि विश्व स्तर पर उन दो फंडरों के बीच की लड़ाई है जो दोनों अलग अलग आन्दोलनों को फंड कर रहे थे. जाहिर है अगर ऐसा है तो अरुंधती के बात के पीछे भी कोई और ही है. ऐसे सवाल बड़े जायज़ है क्योंकि अरुंधती भी बुकर से सम्मानित हैं और ओक्सफाम और बीबीसी जैसी एजेंसियों से जुडी रही हैं.
(एक्तिविसम का खेल भी इस देश मे बड़ा मजेदार है अभी कुछ दिन पहले ग्रीन पीस संस्था ने एक विज्ञापन दिया था - क्या आप एक्टिविस्ट बनाना चाहते है ? यदि हां तो अपनी CV ......................... भेजें. तो क्या एक्टिविस्ट बनाने का काम भी ऐसी ही एजेंसियां कr रही हैं ? तो फिर बात एक बार फ़िर सोचने वाली है के इस सरे खेल मे जनता कहाँ है? क्या वो सिर्फ मोहरा है ?)

फोर्ड फाउनडेशन का गठन फोर्ड कार के मालिक Edsel Ford द्वारा १९३६ मे अमेरिका के मिशिगन प्रान्त मे किया गया. अपने शुरूआती दौर मे यह संस्था अमेरिका मे ही काम करती रही किन्तु १९५२ में संस्था ने अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय आफिस दिल्ली ने खोला और १९७६ मे बंगलादेश मे ग्रामीण बैंक की स्थापना की.
दूसरी महत्वपूर्ण संस्था है ओक्सफाम जिसकी जड़ें भारत मे बहुत मजबूत हैं . ओक्सफाम ने महिलाओं के विकास, गरीबी उन्मूलन तथा अनेक विषयों पर काम किया है. इन दोनों ही संस्थाओं की पैठ भारत के शिक्षित जगत मे बहुत अच्छी है.

उपरोक्त शक्तियों के आलावा सरकार को भी तमाम कामो के लिए विदेशी फंड मिलते हैं. जिसमे US Aid , DFID , UN , नीदरलैंड सरकार, ब्रिटिश हाई commission जैसी तमाम एजेंसियां अलग अलग कामों के लिए भारत सरकार को फंड देती है. ऐसे मे जाहिर है सरकार के फंडर, अरुंधती द्वारा समर्थन किये जा रहे आन्दोलनों के फंडर और अन्ना के आन्दोलन का समर्थन कर रहे आन्दोलन के फंडर तीन अलग अलग शक्तियां हैं जो वैश्विक स्तर पर अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही हैं.मज़े की बात ये है के तमाम आन्दोलनों को फंड कर रही एजेंसियों को बड़े पैमाने पर कर्पोरत जगत से पैसे मिलते हैं जो सरकार को नियंत्रण करने की फ़िराक मे लगे रहते हैं.

सच कहा जाये तो ये एक बहुत ही गंभीर चिंता का विषय है देश के लिए.जिसपर देश की सरकार अगर नहीं सोचती तो देश के लोंगों को सोचने की आवश्यकता है. देखा जाये तो जनता देश की धुरि होती है सारी संस्थाएं व्यवस्थाएं जनता के लिए और जनता के द्वारा बनाई गयी होती हैं. इसपर न केवल जनता का हक़ होता है बल्कि यह उनकी ही होती हैं फिर क्या होता है जो बाहरी शक्तियां इन संश्थाओं को चलने की साजिश रचने लगती हैं ? फिर क्या होता है जो अलग अलग देशों मे ६०० आन्दोलन चलने को लालायित रहती हैं (जैसा की अरुंधती बताती हैं ) जाहिर है उनका कोई बड़ा हित जरूर है. इस बात को थोडा बारीकी से समझाना होगा.


. यह वास्तव मे गौर करने लायक बात है के देश मे आज जितने भी जाने पहचाने चेहरे खड़े हुए हैं चाहे वो अरुंधती रॉय हो, मेधा पाटकर हों, अरविन्द केज़रिवल हों, राजेब्द्र सिंह हों या फिर इस आन्दोलन के बाद के अन्ना हजारे सबके पीछे कहीं न कहीं आपस मे लड़ती ये एजेंसियां ही हैं जो भारत मे अपनी अपनी सरकारों की नीतियों के मद्दे नज़र काम कर रही हैं. ऐसे मे अन्ना का आ न्दोलन बिलकुल सही और स्वाभाविक लगते हुए भी कहीं न कहीं इन देशों की छिपी मंशा का शिकार जरूर हुआ है.

मतलब ये भी की देश की आज़ादी के बाद नए तरीके से देश मे अपनी पैठ बनाने का काम कई देशों ने इन संस्थाओं के माध्यम से हमारी गरीबी, अशिक्षा और बेकारी को हथियार बनाकर करना शुरू क़र दिया. सिविल राईटस इसका अगला चरण था. किन्तु इन सबके बीच बड़ी बात ये हैं के अन्ना के चरित्र और उनके अब तक के सभी कामो की सराहना और आलोचना की जा सकती है पर उनकी मंशा पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता.

अंत मे, अगर अरुंधती अन्ना के आन्दोलन के पीछे की शक्तियों के विषय को गंम्भीरता से उठा सकती हैं और सवाल खड़े कर सकती हैं तो दूसरी तरफ अरुंधती को भी यह बताना होगा के जब वो कश्मीरी सेप्रतिस्म को सपोर्ट करती हैं तो उसके पीछे किन शक्तियों का हाथ होता है ?

........................डॉ. अलका सिंह